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ऋ॒तं चि॑कित्व ऋ॒तमिच्चि॑किद्ध्यृ॒तस्य॒ धारा॒ अनु॑ तृन्धि पू॒र्वीः। नाहं या॒तुं सह॑सा॒ न द्व॒येन॑ ऋ॒तं स॑पाम्यरु॒षस्य॒ वृष्णः॑ ॥२॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ṛtaṁ cikitva ṛtam ic cikiddhy ṛtasya dhārā anu tṛndhi pūrvīḥ | nāhaṁ yātuṁ sahasā na dvayena ṛtaṁ sapāmy aruṣasya vṛṣṇaḥ ||

पद पाठ

ऋ॒तम्। चि॒कि॒त्वः॒। ऋ॒तम्। इत्। चि॒कि॒द्धि॒। ऋ॒तस्य॑। धाराः॑। अनु॑। तृ॒न्धि॒। पू॒र्वीः। न। अ॒हम्। या॒तुम्। सह॑सा। न। द्व॒येन॑। ऋ॒तम्। स॒पा॒मि॒। अ॒रु॒षस्य॑। वृष्णः॑ ॥२॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:12» मन्त्र:2 | अष्टक:4» अध्याय:1» वर्ग:4» मन्त्र:2 | मण्डल:5» अनुवाक:1» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब विद्वद्विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (ऋतम्) सत्य कारण को (चिकित्वः) जानने योग्य ! आप (ऋतम्) सत्य ब्रह्म को (इत्) निश्चय से (चिकिद्धि) जानिये और (ऋतस्य) सत्य के जनानेवाली (पूर्वीः) प्राचीन (धाराः) वाणियों को जानिये और अविद्या का (अनु, तृन्धि) नाश करिये (अहम्) मैं (सहसा) बल से (यातुम्) जाने की (न) नहीं इच्छा करता हूँ और (द्वयेन) कार्य्यकारणस्वरूप बल से (अरुषस्य) नहीं हिंसा करनेवाले (वृष्णः) बलिष्ठ के (ऋतम्) जल के (न) सदृश पदार्थ को (सपामि) गम्भीर शब्द से क्रोशता हूँ ॥२॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे विद्वान् जन असत्य का खण्डन करके सत्य को धारण करते हैं और अविद्या का त्याग करके विद्या को धारण करते हैं, वैसे ही आप लोग भी करो ॥२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ विद्वद्विषयमाह ॥

अन्वय:

हे ऋतं चिकित्वस्त्वमृतमिच्चिकिद्धि ऋतस्य पूर्वीर्धाराश्चिकिद्धि अविद्यामनु तृन्धि अहं सहसा यातुं नेच्छामि द्वयेन सहसारुषस्य वृष्ण ऋतं न सपामि ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (ऋतम्) सत्यं कारणम् (चिकित्वः) विज्ञातव्यम् (ऋतम्) सत्यं ब्रह्म (इत्) एव (चिकिद्धि) विजानीहि (ऋतस्य) सत्यस्य विज्ञापिकाः (धाराः) वाचः (अनु) (तृन्धि) हिन्धि (पूर्वीः) प्राचीनाः (न) (अहम्) (यातुम्) गन्तुम् (सहसा) बलेन (न) इव (द्वयेन) कार्यकारणात्मकेन (ऋतम्) उदकम् (सपामि) आक्रुशामि (अरुषस्य) अहिंसकस्य (वृष्णः) बलिष्ठस्य ॥२॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या ! यथा विद्वांसोऽसत्यं खण्डयित्वा सत्यं धरन्ति अविद्यां विहाय विद्यां धरन्ति तथैव यूयमपि कुरुत ॥२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - भावार्थ -हे माणसांनो ! जसे विद्वान लोक असत्याचे खंडन करून सत्य धारण करतात. अविद्या सोडून विद्या धारण करतात तेच तुम्हीही करा. ॥ २ ॥